जेण्डर भूमिका
जेण्डर भूमिका एक तकनीक या कहें की विश्लेषण का ‘टूल’ है, जिसे टेक्स्ट के साथ-साथ उसके परिवेश व उसमें स्त्री की भूमिका को विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सत्ता की नीतियों के आधार समझा जा सकता है। जो समाज में ‘स्त्री’ होने की नाटकीय भूमिका को निर्मित करता है जिसे ‘सोशल कंडीशनिंग’ भी कहा जाता है। कंडिशनिंग की इस प्रक्रिया को जेण्डर के अन्तर्गत समझाने का प्रयास किया जाता है। सार्वभौमिक रूप में देखा जाए तो जेण्डर के संदर्भ में स्त्री कंडीशनिंग एक समान रूप से होती है भले ही तरीके अलग-अलग हो क्योंकि स्थान, परिवेश व भाषा का भी इसमें अहम योगदान रहता है।
पहचान की समस्या पुरुष के समक्ष नहीं आती उसकी पहचान स्थायी होती है। स्त्री की तो पहचान ही उसकी अपनी नहीं पहले पिता, फिर पति अगर दोनों ही न हो, यह विचारणीय प्रश्न है। जेण्डर के संदर्भ में समझा जाए तो स्त्री को सदा ही समाज ने कमजोर व आश्रित माना य बनाया जिसके लिए पहले पिता फिर पति के संरक्षण की व्यवस्था की गई। जेण्डर विमर्श में स्त्री का स्त्री होना ही आज सबसे बड़ा प्रश्न बनकर उभरता है। उसका अपना व्यक्तित्व स्वतंत्र कहाँ है? जिस स्त्री की बात हमारा समाज करता है वह समाज निर्मित है। जब प्रकृति ही स्त्री-पुरुष की लैंगिक संरचना को उनके व्यक्तित्व का आधार नहीं बनाती तो समाज क्यों? फिर यदि स्त्री पितृसत्ता द्वारा निर्मित छवि को पहचान जाती है और उससे अलग होकर जीने की चाह रखती है तो समाज उसे जीने नहीं देता। पत्नी, बहिन और माँ की भूमिका से भी पहले स्त्री एक इंसान, ठीक वैसे ही जैसे पुरुष है समाज में व्यक्ति पहचान का संबंध एक ओर कर्तव्यों से रहा, तो दूसरी ओर सेक्स आधारित भेद से ऐसे में व्यक्ति की अपनी पहचान का प्रश्न तो बनाता ही रहता है।
समाज में स्त्री को हमेशा उन्हीं अपराधों के लिए सजा दी जाती है, जिसकी जिम्मेदार वह खुद नहीं होती है। उसका की होना उसका नहीं सत्ता समाज और संस्कृति की परवरिश रही तो उस परवरिश से उमरे गुण उसकी सीमा रेखा जिसने जाने-अनजाने में उसे स्वयं के प्रति ही अपराधी बना दिया। फिर वह अपराध उसका सौन्दर्य, शीलभंग, अवैध गर्भधारण व गर्भ में पुत्री की माँ होना ही क्यों ना हो, जिसने समाज के समक्ष उसे उपेक्षित व हास्यास्पद बनाया। यह सत्ता और समाज ही है जिसने हमें सिखाया की काला रंग बुरा है और जो व्यक्ति काला होता है उसे समाज नहीं अपनाता और मानसिक रूप से हम सौंदर्य के इस तथाकथित पैमाने को अपनाने लगते हैं। इसी तरह शरीर की विकास प्रक्रिया के दौरान घटित जैविक क्रियाएँ उन्हें स्वयं को अपराधी मानने पर मजबूर कर देती हैं अपने पति देवता से भी नहीं खामोश रहकर क्रूरता का वहन करना ही क्या स्त्री की नियति है। जिसका यदि वह विरोध करती है तो अश्लील व चरित्रहीन कही जाती है। समाज ने स्त्री से अधिक उसकी देह को महत्व दिया। इसी कारण समाज स्त्री को उसकी देह के माध्यम से कमजोर करता देखा जाता है।
महिला नारी के रूप में जब माँ बनती है तो वह हमारे जीवन का आध्यात्मिक पक्ष बन जाती है जबकि पिता भौतिक पक्ष बनता है। जीवन इन दोनों से ही चलता है। हमारे शरीर में आत्मा माँ का आध्यात्मिक स्वरूप है और यह शरीर पिता का साक्षात भौतिक स्वरूप अध्यात्म से शून्य भौतिकवाद विनाश का कारण होता है और भौतिकवाद से शून्य अध्यात्म भी नीरसता को जन्म देता है। नारी को चाहिए कि वह समानता का स्तर पाने के लिए संघर्ष अवश्य करें, किन्तु अपनी स्वाभाविक लज्जा का ध्यान रखते हुए। निर्लज्ज और निर्वस होकर वह धन कमा सकती है, किंतु सम्मान को प्राप्त नहीं कर सकती है। भौतिकवादी चकाचौंध में निर्वस्त्र घूमती नारी, अंग प्रदर्शन कर अपने लिए तालियाँ बटोरने वाली नारी को यह भ्रांति हो सकती है कि उसे सम्मान मिल रहा है, किन्तु स्मरण रहे कि यह तालियाँ बजना, उसका सम्मान नहीं अपितु अपमान है क्योंकि जब पुरुष समाज उसके लिए नालियाँ बजाता है तब वह उसे अपनी भोग्या और मनोरंजन का साधन समझकर ही ऐसा करता है। जिसे सम्मान कहना स्वयं सम्मान का भी अपमान करना है।
स्त्री और पुरुष के बीच जैविक भेद उनकी शारीरिक बनावट, प्रजनन अंगों और शिशु को पालने पोसने की क्षमता को लेकर पाए जाते हैं। ये भेद मित्र किस्म के हारमोनों की क्रिया के परिणाम से होते हैं। मानय जाति के इतिहास पर गौर करें तो इन सबकी कार्यप्रणाली कमोवेश अपरिवर्तित रही है। तकनीकी हस्तक्षेप से कृत्रिम गर्भाधान की तकनीकें जरूर विकसित हो रही हैं, परंतु प्रजनन की मूल जैविक सामग्री और माता की कोख का विकल्प सभी को प्राप्त नहीं है। किराए पर ही सही लेकिन माता की कोख जरूरी है। जैविक भिन्नताओं के आगे जब हम व्यक्तित्व और व्यवहार पर विचार करते हैं तो सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भ महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
नारी के बिना पुरुष की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। ईश्वर ने नारी को सहज और सरल बनाया है, कोमल बनाया है। उसे क्रूर नहीं बनाया। निर्माण के लिए सहज, सरल और कोमल स्वभाव आवश्यक है। विध्वांश के लिए क्रूरता आवश्यक है। रानी लक्ष्मीबाई हो या अन्य कोई वीरांगना अपनी महनशक्ति को सीमाओं को टूटने देखकर ही और किन्ही अन्य कारणों से स्वयं को आरक्षित अनुभव करके ही क्रोध को ज्वाला पर चढ़ी।
महिलाओं एवं पुरुषों की स्थिति प्रचलित रीति रिवाजों पर निर्भर करती है। महिलाओं के लिये घर के काम काज तथा पुरुष वर्ग के लिये धन कमाना एवं अन्य बाहर के कार्य करना निर्धारित है। आज महिलाओं का जीवन पर की चार दीवारों तक ही सीमित नहीं रह गया है वरन् आज की स्त्री समाज के विकास में अपना पूर्ण योगदान कर रही है। शिक्षा, जिससे पहले महिलाओं को वंचित रखा जाता था आज की नारी उसी क्षेत्र में पुरुषों से कई गुना आगे बढ़ गई हैं। शहरी क्षेत्र किसी भी प्रकार के लोक रिवाजों से पूर्णत परे है। बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसे रिवाजों को ताक पर रख दिया। गया है, महिलायें एवं पुरुष पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। आज पुरुष एवं सियाँ किसी भी जाति में विवाह करने के लिये पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। अर्थात् कहा जा सकता है इन क्षेत्रों में महिलाएं एवं पुरुष अपन भविष्य के लिये निर्णय स्वयं से सकते हैं। इन क्षेत्रों में जीविकोपार्जन के लिये बड़े-बड़े उद्योग स्थापित है। जहा पुरुष एवं सि समान रूप से कार्य करते हैं, एवं किसी भी कम्पनी या सरकारी नौकरियों में किसी भी पद के लिये एवं वेतन के लिये सेक्स के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है।
अतः वेण्डर की भूमिका पुरुष एवं सिमी में अलग-अलग है। समाज में महिला एवं पुरुषों की भूमि मित्र-भित्र समझी जाती है पुरुषों को घर का मुखिया समझा जाता है तथा सर्वप्रथम भोजन प्राप्त करने का अधिकारी समझा जाता है महिलाओं को पालन-पोषण एवं देख-भाल करने वाले घरेलू सदस्य के रूप में माना जाता है। पत्नी, बहन और माँ की भूमिका से भी पहले स्त्री एक है, ठीक वैसे ही, जैसे पुरुष है। लिंग-आधारित भेदभाव व्यक्तियों से उनके जेन्डर के आधार पर मित्र मित्र व्यवहार करता है, जिसके परिणामस्वरूप एक संपूर्ण मानव के रूप में उनकी क्षमताओं के पूर्ण उपयोग के लिए अवसरों तक पहुँच में भेदभाव उत्पन्न हो जाता है। पुरुषों तथा महिलाओं के बीच जैविक अंतर विद्यमान होते हैं। तथापि, लैंगिक अंतर जैविक अंतरों से मित्र हैं समाजीकरण के उत्पाद हैं।
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