जाति व्यवस्था के दुष्परिणामों की विवेचना कीजिए।

जाति व्यवस्था के दुष्परिणाम

जाति व्यवस्था एक अभिशाप है, जो हमारे समाज को डसती जा रही और समाज के विकास को भी अवरोधित कर रही है। इस सामाजिक अवरोधों को हम निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्पष्टतः समझ सकते हैं।

(1) सामाजिक विघटन – जाति व्यवस्था ने समाज को विघटित करने में अपना अत्यधिक योगदान प्रदान किया है। जातियों में से असंख्य उपजातियाँ निकल पड़ी। परिणामस्वरूप हिन्दू समाज अनेक खण्डों में विभाजित होकर छिन्न-भिन्न हो गया। निम्न जातियाँ उच्च जातियों से ईर्ष्या करने लगी तथा उच्च जातियों के अत्याचार निम्न जातियों पर बढ़ने लगे, जिनके परिणामस्वरूप समाज में विघटनकारी प्रक्रिया प्रबल होने लगी। आज भी होने वाले अनेक जातीय संघर्ष इसी विघटन की प्रक्रिया के द्योतक है।

(2) आर्थिक प्रगति में बाधक- जाति व्यवस्था के कारण व्यक्ति अपनी आर्थिक प्रगति मनोवांछित ढंग से नहीं कर पाता, प्रत्येक व्यक्ति को अपना जातिगत पेशा ही अपनाना पड़ता है, चाहे उसे करने की उसमें रुचि व योग्यता हो या न हो। ऐसा करने से उत्पादन में बाधा पड़ती है।

(3) प्रतिभा का दुरुपयोग- व्यवसायों को जन्मजात करके निम्न वर्ग को जीवन भर निम्न कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया गया, भले ही निम्न जाति के कुछ प्रतिभा सम्पन्न सदस्य अन्य क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन भी कर सकते थे। एक चर्मकार जीवन भर जूता ही गाँठता था, भले ही उसमें कितनी बौद्धिक प्रतिभा क्यों न थी।

संस्था की विशेषताएँ एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।

(4) हिन्दू समाज की क्षीणता – हिन्दू समाज जाति व्यवस्था के कारण क्षीण होता जा रहा है, क्योंकि यह आपस में लड़ते हुए असंख्य समुदायों या कोई तीन हजार जातियों और उपजातियों का जो सब भोजन और विवाह सम्बन्ध में एक-दूसरे को अस्पृश्य समझती हैं, एक प्रति क्षण गिरने वाला ढेर बन चला है। वर्तमान रूप में जाति-भेद के रहते हुए भारत में सच्ची राष्ट्रीय एकता, समानता और प्रजातन्त्र की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। वास्तव में जाति व्यवस्था के कारण ही, हिन्दू-समाज दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा है।

(5) समाज सुधार में बाधक – जाति व्यवस्था समाज की स्थिरता में विश्वास करती है। उसने सदा सामाजिक सुधारों का विरोध किया। जाति व्यवस्था ने शुद्धि संगठन और निम्न जातियों के उद्धार की चेष्टाओं को व्यर्थ कर दिया है। जाति प्रथा के कट्टर समर्थक निम्न जातियों के लोगों को ऊपर उठाने का कभी अवसर देना पसन्द नहीं करते और यदि कोई ऐसा करता है तो वे उसका विरोध करते हैं।

(6) स्त्रियों की हीन दशा- जाति व्यवस्था ने स्त्रियों की दशा को कभी ऊँचे नहीं उठने दिया उन पर अनेक बन्धन लगाए गए तथा बाल विवाह, बहु-विवाह आदि द्वारा उनकी दशा को और अधिक शोचनीय बना दिया गया। विधवा-पुनर्विवाह कर निषेध कर स्त्रियों को अनैतिक कार्यों के लिए प्रेरित किया गया। पर्याप्त काल तक उन्हें शिक्षा के पवित्र अधिकार से वंचित रखा गया। वर्तमान युग में प्रत्येक उस व्यवस्था को निन्दनीय माना जाता है, जो स्त्री-पुरूष के अधिकारों में भेद करती है।

(7) धन और श्रम का असमान वितरण- जाति व्यवस्था का एक अन्य दोष यह रहा है कि इसने समाज में धन और श्रम का समान रूप से वितरण नहीं होने दिया। ब्राह्मणों को कोई विशेष कार्य नहीं करना पड़ता था। वे शारीरिक श्रम से पूर्णतया मुक्त रहे, जबकि शूद्रों को कठोर श्रम करना पड़त था। धन की दृष्टि से भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही लाभान्वित रहे और शूद्र सदा निर्धनता से पीड़ित रहे। इस प्रकार धर्म और श्रम का ऐसा वितरण किया गया कि केवल उच्च जातियाँ तो लाभ उठा सकें, परन्तु निम्न जातियों के लोग दरिद्रता और कठोर श्रम से पीड़ित रहें।

(8) धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन – जाति व्यवस्था ने धर्म परिवर्तन को भी प्रोत्साहित किया। शुदों या अछूतों के साथ बुरा व्यवहार होता था, अतः अनेक शुद्ध मुसलमान, बौद्ध या ईसाई हो गए, क्योंकि इन धर्मों में इस प्रकार की बन्द श्रेणियों का अभाव पाया जाता है कभी-कभी किसी मुसलमान के हाथ का हुआ भोजन कर लेने मात्र से जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। आज भी धर्म परिवर्तन को कुछ घटनाएँ इसी कारण से घटित हो रही हैं।

(9) अस्पृश्यता की कुप्रथा- जाति व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष है कुछ जातियों को अस्पृश्य बना देना। यह भावना आगे चलकर पूर्णतया अमानुषिक हो गई। शूदों को जीवित तक जला दिया जाता था। उन्हें सार्वजनिक स्थानों, मन्दिरों, राजमागों, विद्यालयों तथा कुओं आदि के प्रयोग से वंचित रखा गया। यहाँ तक कि शूदों की छाया तक से घृणा की जाने लगी। यह धारणा सभ्य समाज के उञ्चल मस्तक का कलंक है।

(10) अप्रजातान्त्रिक – जाति व्यवस्था पूर्णतया अप्रजातान्त्रिक है। यह व्यवस्था समानता की भावनाओं पर कुठाराघात करती है तथा इसने समाज में ऊँच-नीच की भावनाओं को जन्म दिया है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति करने का समान अधिकार होता है, परन्तु जाति व्यवस्था द्वारा निम्न जातियों के सदस्यों को इस अधिकार से युगों तक वंचित रखा गया। असमानता को महत्व देने वाली प्रथा अप्रजातान्त्रिक है।

(11) राष्ट्रीय एकता में बाधक – जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित कर दिया। इस विभाजन के फलस्वरूप हिन्दू समाज की एकता को गहरा आघात पहुँचा है। व्यक्ति का दृष्टिकोण हो गया है, वह पूरे राष्ट्र के प्रति जागरूक रहने के स्थान पर केवल अपनी जाति के हितों को अधिक महत्व देने लगा है तथा उसकी निष्ठा भी राष्ट्र की अपेक्षा जातिवाद के कारण अपनी जाति तक ही सीमित रह गई है।

इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था मात्र सामाजिक विकास को अवरोधित न कर सम्पूर्ण देश के विकास को अवरोधित करती है।

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