जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त
जाति प्रथा की उत्पत्ति कैसे हुई यह प्रश्न विवादास्पद है। इसकी उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है
(1) शास्त्रीय या परम्परागत सिद्धान्त–
यह सिद्धान्त वेदों, महाकाव्यों एवं पुराणों की व्याख्याओं पर आधारित है। इसके अनुसार जाति को उत्पत्ति ब्रह्मा ने स्वयं की है। वृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार ब्रह्मा ने पहले चार वर्ण बनाए और उनके पैसे भी निश्चित किए वर्ण निम्न प्रकार के थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद। ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मण, ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजा से, वैश्य उदर और शूद पैरों से पैदा हुए। इसी आधार पर प्रत्येक जाति का कार्य निश्चित किया गया। बाहु शक्ति का प्रतीक इसलिए क्षत्रियों का कार्य शक्ति से सम्पन्न कार्य है।
महाभारत में एक स्थान पर भृगु कहते हैं कि ब्रह्मा ने सबसे पहले ब्राह्मण को रचा और उसके पश्चात् क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति हुई वर्णों को रंग के आधार पर एक दूसरे से पृथक् कहा जा सकता है। ब्राह्मण का श्वेत, क्षत्रिय का लाल, वैश्य का पीला और शूद्र का काला रंग होता है। महाभारत में इन चारों वर्षों से विभिन्न जातियों और उपजातियों की सृष्टि कैसे हुई यह भी बताया गया है।
आलोचना- आज के दौर में इस बात को कोई भी सरलता से नहीं मान सकता कि सभी जाति अथवा वर्णों को ब्रह्मा जी ने अपने अंगों से उत्पन्न किया है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का जन्म या कर्म ही जाति व्यवस्था का आधार है। नई जाति या उपजाति की कल्पना पूरी तरह से सत्य नहीं क्योंकि इनकी उत्पत्ति में कई कारण हो सकते हैं। एक दोषपूर्ण बात यह है कि इनके अध्ययन करते समय वर्ण और जाति में भ्रम उत्पन्न हो जाता है जबकि दोनों एक दूसरे से अलग है।
(2) धार्मिक सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक Hocart और Senart है। Hocart का विचार है कि धार्मिक क्रियाओं अथवा कर्मकाण्डों से संबंधित विभिन्न क्रियाएँ पवित्रता के आधार पर अनेक उच्च व निम्न स्तरों पर आधारित होती है। इन क्रियाओं की संख्या भी इतनी अधिक है कि प्रत्येक क्रिया को करने के लिए विशेष व्यक्तियों को आवश्यकता होती है। इसलिए आरम्भ से ही चार वर्णों का विभाजन इन विभिन्न क्रियाओं के करने के उद्देश्य से हुआ है।
सेनार्ट (Senart) ने जाति व्यवस्था के अन्तर्गत भोजन, विवाह और सामाजिक सहवास से सम्बन्धित प्रतिबंधों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति कुल देवता की पूजा और परिवार में भोजन संबंधी निषेधों को भिन्नता पर आधारित है। आय के आने से भारत में मिश्रित प्रजातीय समूह बने। इससे आर्यों की ओर से प्रजातीय शुद्धता, पवित्रता आदि के आधार पर एक समूह को दूसरे से अलग कर दिया गया। उन लोगों ने जप, तप और पूजा के आधार पर अपनी पवित्रता को बनाए रखने के लिए अपनी स्थिति को सबसे ऊपर रखते हुए जाति प्रथा का निर्माण किया। इस प्रकार धार्मिक आधार पर ही समाज कुछ समूहों में विभाजित हुआ और धार्मिक पवित्रता के अनुसार ही विभिन्न समूहों को एक विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त हुई ‘
आलोचना-सेनार्ट और होकार्ट ने धार्मिक आधार पर इस सिद्धांन्त को प्रस्तुत किया है जबकि यह सामाजिक स्तरीकरण की एक व्यवस्था है, जाति व्यवस्था के अन्तर्गत होकार्ट ने खान-पान, सामाजिक सहवास जैसे निषेधों का स्पष्ट रूप से कोई कारण नहीं बताया है। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया है कि जाति जैसी जटिल व्यवस्था का निर्माण कर्मकाण्ड के आधार पर कैसे हुआ।
(3) प्रजातीय सिद्धान्त-
श्री हर्बर्ट रिजले ने सर्वप्रथम इस सिद्धान्त को एक वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया था। रिजले के अनुसार, “जाति प्रथा की उत्पत्ति के तीन आधारभूत कारक हैं-(1) प्रजातीय सम्पर्क, (2) वर्ग भेद की भावना, (3) इस सम्पर्क में वर्ण व्यवस्था। उनके अनुसार आरंभ में भारत में जाति-व्यवस्था नहीं थी। इसका वास्तव में आरम्भ आर्यो की उस शाखा द्वारा हुआ जिसने गिलगिट और चिलाव के रास्ते भारत में आकर यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ों को परास्त किया। आर्य लोग आक्रमणकारी के रूप में भारत आए थे। इस कारण उनके पास स्त्रियों की कमी थी, इस कमी को पूरा करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों की लड़कियों से अपने लड़कों के विवाह को स्वीकार किया। इस प्रकार अनुलोम में विवाह प्रथा को जन्म दिया लेकिन उन्होंने अपनी लड़कियों के साथ मूल निवासियों के लड़कों का विवाह स्वीकार नहीं किया था। इस प्रकार प्रतिलोम विवाह पर प्रतिबंध लगाया।
” डॉ० धुरिये ने जाति प्रथा की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए रिजले के सिद्धान्तों को कुछ अंशों में स्वीकार किया। उनके अनुसार, “आर्यों ने अपनी सांस्कृतिक और प्रजातीय विशुद्धता को बनाए रखने के लिए पृथकता की नीति अपनाई प्रजातीय अथवा रक्त की पवित्रता के आधार पर विभिन्न समूह उच्च तथा निम्न स्थिति वाले सामाजिक समूहों के रूप में विभाजित हो गए।”
डॉ० मजूमदार ने जाति व्यवस्था के विभाजन, ऊँच-नीच की व्यवस्था और उपजातियों के निर्माण की स्थिति को प्रजाति आधार पर स्पष्ट किया है। आर्यों ने सामाजिक विभाजन की नीति अपनाई । द्रविड़ों को परास्त करने के बाद आर्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में विभाजित हो गए और द्रविड़ों को निम्नतम श्रेणी में रखा। ये सभी समूह अन्तर्विवाही बन गए जिससे वे दूसरे प्रजातीय समूहों के मिश्रण और प्रभाव से बचकर अपनी प्रजातीय विशुद्धता और सांस्कृतिक एकता की रक्षा कर सकें।
आलोचना हट्टन का कहना है कि “संसार के लगभग सभी समाजों में प्रजाति सम्पर्क हुआ है किन्तु किसी भी समाज में जाति व्यवस्था का निर्माण नहीं अतः प्रजाति के अतिरिक्त कोई अन्य कारण भी है।” आयों के बीच ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद जैसा विभाजन स्पष्ट नहीं होता। यदि जाति विभाजन का आधार प्रजाति है तो मुसलमानों में यह विभाजन क्यों नहीं पाया जाता है। प्रजातीय सिद्धान्त के द्वारा अलग जातियों के अलग-अलग व्यवसायों का कारण स्पष्ट नहीं होता।
(4) राजनैतिक सिद्धान्त-
विद्वानों के अनुसार जाति प्रथा ब्राह्मणों के द्वारा बनाई गई एक चतुर राजनीतिक योजना है। जाति धर्म पर आधारित है और धार्मिक कार्यों को करने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है। इस कारण ब्राह्मण ने अपने स्थान को बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और ऐसी योजना बनाई और उन लोगों को द्वितीय स्थान दिया जो ब्राह्मणों के स्वार्थ की रक्षा कर सकें। lbeteson और ‘धुरिये’ ने आंशिक रूप में यह माना है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति में ब्राह्मणों का सक्रिय योगदान रहा है। डॉ० घुरिये ने स्पष्ट लिखा है कि “जाति प्रथा इन्डो आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का बच्चा है जो कि गंगा और यमुना के मैदानों में पला और वहाँ से देश के दूसरे भाग में ले जाया गया है।”
आलोचना– समाजशास्त्र की दृष्टि से यह सिद्धान्त भ्रम जैसा लगता है क्योंकि जाति प्रथा एक सामाजिक संस्था है और किसी भी संस्था की कृत्रिम रचना नहीं की जाती बल्कि उनका स्वाभाविक विकास हुआ करता है।
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(5) व्यवसायिक सिद्धान्त
पेशों के आधार पर जाति प्रथा की उत्पत्ति की व्याख्या श्री सफील्ड ने की है। उनके सिद्धान्त का केन्द्रीय भाव यह है, ” पेशा और केवल पेशा हो जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। आरम्भ में किसी भी व्यवसाय को व्यक्ति कर सकता था। पुरोहित का काम कोई भी व्यक्ति कर सकता था लेकिन बाद में धार्मिक कार्य और यज्ञ इतने जटिल हो गए कि इनको पूरा करने के लिए एक विशेष ज्ञान की आवश्यकता हुई उस समय यज्ञ और धार्मिक कार्यों का सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्व होने के कारण जो व्यक्ति इसको पूरा करने लगे उनको प्रतिष्ठा सर्वोच्च हो गई, ऐसे व्यक्ति को ब्राह्मण कहा जाने लगा। प्रशासन का कार्य जिन लोगों ने किया उन्हें क्षत्रिय कहा जाने
लगा। इसके पश्चात् जिस वर्ग ने व्यापार आर्थिक क्रियाएँ की वैश्य, कहलाए। इस प्रकार नेसफील्ड (Nesfield) ने निष्कर्ष दिया कि “जाति-व्यवस्था समाज की एक स्वाभाविक उपज है जिसके निर्माण में धर्म का कोई स्थान नहीं रहा है।
आलोचना हट्टन का कहना है कि यदि नेसफील्ड के अनुसार व्यवसाय ही जाति प्रथा का आधार है तो दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में कृषि करने वालों को अधिक ऊँचा स्थान क्यों मिला है। जाति व्यवस्था धर्म से पूर्णतया स्वतंत्र है यह विश्वास नहीं किया जा सकता। शुद्र वर्ण और निम्न जातियों की उत्पत्ति को यह सिद्धान्त नहीं दर्शाता है। न ही अलग-अलग जातियों के बीच मिलने वाली प्रजाति को व्यक्त ही करता है।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण से स्पष्टतः कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के पीछे कोई एक कारक विद्यमान नहीं था बल्कि इसके पीछे कई प्रमुख कारकों ने समय- समय पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी।
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