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जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में हो रहे समकालीन परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।

जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन

आधुनिक युग में जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति परिवर्तित हो रही है। बाहरी जगत से सम्पर्क के कारण अधिकांश जनजातियों में महिलाओं पर वैसे ही प्रतिबन्ध लगने प्रारम्भ हो गए हैं, जिस प्रकार के हिन्दू महिलाओं पर हैं। इसीलिए जिन जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति ऊँची भी थी, वह भी अब पहले की तुलना में निम्न हो गई है। जनजातियों में भी लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता दी जाने लगी है तथा शिक्षा एवं रोजगार में भी पुरुष महिलाओं से कहीं आगे हैं। शिक्षा एवं रोजगार के अभाव में जनजातीय महिलाओं की प्रस्थिति प्रायः निम्न ही है। उन्हें विवाह एवं जीवनसाथी के चयन में मिली परम्परागत स्वतन्त्रता भी कम हो गई है। मातृवंशीय परिवार लुप्तप्रायः होते जा रहे हैं। जनजातीय सामाजिक संरचना में महिलाओं की भागीदारी उन पर लगे प्रतिबन्धों के कारण सीमित होती जा रही है। अब जनजातियों में भी विधवा-पुनर्विवाह इतना सरल नहीं रहा है। अब अधिकांश जनजातियों में विवाह विच्छेद एवं पुनर्विवाह सम्बन्धी नियम महिलाओं की तुलना में पुरुषों के अधिक पक्षधर प्रतीत होते हैं।

ब्रह्मदेव शर्मा ने अनेक ऐसी परिस्थितियों का वर्णन किया है जहाँ जनजाति की भोली माली किशोरियों, जो समानता, स्वतन्त्रता व शिथिल यौन नैतिकता के पर्यावरण में पली हैं, कैसे इन सभ्य कहलाने वाले छोटे-मोटे अधिकारी, व्यापारी, तकनीशियन या श्रमिकों द्वारा छली जाती हैं। कभी धोखे से, कभी पैसे के लालच में, कभी केवल शक्ति प्रयोग से इन अल्हड़ बालाओं को वे अपनी अंकशायिनी बना लेते हैं। शर्मा के शब्दों में ही “कभी-कभी तो मीठी गोलियाँ, नहाने के साबुन की टिकिया, पाउडर का डिब्बा आदि तक इन मासूम किशोरियों को फांसने के लिए पर्याप्त होता है।” वे एक खुशहाल आरामदेह जिन्दगी के लिए आकर्षित होती हैं और साहब की ‘रखेल’ बन जाती हैं। इस स्थिति में वे अपने समाज में स्वयं को तिरस्कृत और कभी-कभी बहिष्कृत पाती हैं। जनजाति समाज ऐसी महिलाओं को प्रायः ‘अपराधी मानते हैं जो किसी की पैसों के लिए रखेल बन जाए और सन्तान उत्पन्न करें। ऐसी महिलाओं का समाज में पुनर्वास एक कठिन समस्या बन जाता है।

जाति व्यवस्था के बदलते हुए स्वरूप की विवेचना कीजिए।

जनजाति महिलाओं का यौन शोषण ही उनकी सामाजिक प्रस्थिति में हास का एकमात्र कारण नहीं है बल्कि बाह्य सम्पर्कों के प्रभाव में आकर जो उन पर नई सामाजिक नैतिकता लादी जा रही है, वह भी उनकी परम्परागत प्रस्थिति में ह्रास का कारण है। उदाहरणार्थ, वे अब पुरुषों के साथ नृत्य आदि में भाग नहीं लेतीं या उनमें परदे का समावेश होने लगा है। यदि उनका कार्य क्षेत्र घर और रसोई तक ही सीमित किया जाने लगे तो स्वाभाविक ही हिन्दू महिलाओं की भांति उनकी सामाजिक प्रस्थिति भी पुरुषों की तुलना में नीची होती जाएगी।

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