जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु क्या उपाय किये गए हैं? संक्षेप में लिखिए।

जनजातियों की समस्याओं का समाधान

जनजातियों की समस्याओं के समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए हैं

(1) बृद्धिजीवियों के सुझाव- जनजातियों की समस्या के सामधान हेतु वेरियन एल्विन, डॉ० मजूमदार, डॉ० धरिये आदि प्रमुख समाज शास्त्रियों द्वारा सझाव दिए गए हैं जो पनरुद्धार पथक्करण एवं सात्मीकरण से सम्बन्धित है। अतः यह सुझाव निम्नलिखित तरीके से दिया गया है ज

(अ) पुनरुद्धार – कुछ बुद्धिजीवियों का ऐसा मानना है कि जनजातियों का आज की सभ्यत से जुड़े होने के कारण उनमें अनेक प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया है। इसका परिणाम यह हुआ है। कि आज जनजाति के लोग बहुत सी कमियों तथा दुःख से घिर गए हैं। भारत की विभिन्न जनजातियों के सम्बन्ध में किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं। एस० सी० रॉव ने छोटा नागपुर के औरत लोगों को गिरती हुई सामाजिक एवं भौतिक दशा का उल्लेख किया है। बेरियर एल्विन ने बंगा एवं गोहु लोगों की सभ्यता के सम्पर्क से उत्पन्न समस्याओं का उल्लेख किया है। उनका मत है कि बैगा लोगों के विकास के कार्यक्रम उतावलेपन में लागू करने के कारण उनका जीवन कष्टमय हो गया है। गोड जनजाति का सभ्यता से सम्पर्क के कारण ग्रामीण जीवन नष्ट हो रहा है तथा उनमें बाल-विवाह का प्रचलन हुआ। है। परिवर्तन के कारण इन जातियों की भूमि साहूकारों के हांव में चली गयी है, इनकी जंगल पर निर्भरता समाप्त हुई है, फलस्वरूप वे गरीबी के जाल में फँस गए हैं। जनजातियों की समस्याओं के एल्विन ने कुछ कारण इस प्रकार बताए हैं- भूमि की हानि, जंगल की स्वतन्त्रता पर रोक, शिकार के अवसरों का लॉप होना, गरीबी, जनजाति उद्योगों का पतन, नवीन कानून से उत्पन्न समस्याएँ, मानसिक एवं नैतिक थकान, शराब बनाने पर पाबन्दी, बाह्य धर्मों एवं सुधार आन्दोलनों का प्रभाव।

जनजातियों की समस्याओं को हल करने के लिए रॉय तथा एल्विन इनके पुनरुत्थान का सुझाव देते हैं। एल्विन जनजातीय समस्याओं के समाधान के लिए राष्ट्रीय उपयन (National Park) की स्थापना का सुझाव देते हैं। उनका मत है कि एक ऐसा क्षेत्र बनाया जाये जहाँ आस-पास की जनजातियों को बसाया जाय। इस क्षेत्र में अन्य लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी जाये तथा इस क्षेत्र पर जनजाति आयुक्त का सीधा नियन्त्रण हो। इस उपवन में जहाँ तक सम्भव हो, जनजातियों की संस्कृति एवं विशिष्ट विशेषताओं को बनाए रखने का प्रयास किया जाय। जनजाति के लोगों को इस क्षेत्र से बाहर जाने की भी कम-से-कम स्वीकृति दी जाय। एल्विन जनजातियों को सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन के पक्ष में नहीं है क्योंकि इसके कारण उन्हें कई हानियाँ उठानी पड़ी है। इस प्रकार एल्विन राष्ट्रीय संरक्षित क्षेत्र के द्वारा जनजातियों के पुनरुत्थान की वकालत करते हैं। एल्विन की इस नीति की पुरिये एवं अन्य विद्वानों ने कटु आलोचना की है। आगे चलकर एल्विन ने अपनी नीतियों में कुछ परिवर्तन किया है और वे एकीकरण और आत्मसात की नीतियों के पक्ष में आ गए।

(ब ) पृथक्करण- कुछ महत्वपूर्ण विद्वानों जैसे मजूमदार और हट्टन आदि ने यह मत प्रस्तुत किया है कि जनजातियों की सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए यह बहुत जरूरी है कि उनके अस्तित्व को बनाए रखा जाय। ये विद्वान जनजाति जीवन में परिवर्तन के हामी तो हैं, लेकिन ये परिवर्तन ऐसे हो जो इनके लिए हानिकारक न हो। अतः जनजातियाँ स्वयं ही परिवर्तन का चयन कर उससे अनुकूलन करें। हट्टन कहते हैं कि अंग्रेजी शासनकाल में जनजातियाँ आधुनिकता के सम्पर्क में आर्यों और उनमें अनेक परिवर्तन हुए। उनके सामने दो विकल्प थे- या तो वे हिन्दू समाज व्यवस्था से आत्मसात कर लें या फिर नपुंसक जनजाति जीवन व्यतीत करें। हट्टन का मत है कि जनजाति समस्याओं के समाधान हेतु स्वयं-शासित जनजातीय क्षेत्रों का निर्माण किया जाय और स्वयं जनजातियाँ ही यह तय करें कि उन्हें कौन-से नवीन परिवर्तन अपनाने हैं।

मजूमदार ने भी जनजातियों का अध्ययन कर बताया कि नवीन सम्पर्क के कारण उनमें महत्वाकांक्षाओं एवं उत्साह का हनन हुआ है। सभ्यता के सम्पर्क ने जनजातीय लोगों को गरीब बना दिया है और आज वे इतने अक्षम हैं कि अपने कल्याण के लिए भी नहीं सोच सकते। बाह्य लोगों के सम्पर्क के कारण जनजातियों के हाथों से भूमि छीन ली गयी है, स्थानान्तरण कृषि पर रोक लगा दी गयी है, साहूकारों द्वारा उनका शोषण हुआ है, मिशनरियों ने उनका धर्म परिवर्तन किया है, उनमें अपनी ही संस्कृति के प्रति पुणा उत्पन्न हुई है, विवाह के नियम बदले हैं तथा वे अनेक रोगों से ग्रस्त हैं। दूसरी ओर नवीन सम्पर्क से जनजातियों को कई लाभ भी हुए हैं। अतः जनजातियों को केवल वे लक्षण हो अपनाने चाहिए जो उनके लिए लाभप्रद हैं।

(स) आत्मसात – कुछ विद्वान जैसे निर्मल कुमार बोस, अर्जुन देसाई तथा डॉ० धुरिये का कहना है कि जनजातियाँ हिन्दू समाज की व्यवस्था का ही एक अंग है ये तीनों विद्वान जनजातियों के अलग अस्तित्व को नहीं मानते हैं। बल्कि उन्हें हिन्दुओं के समाज में आत्मसात करने का सुझाव देते हैं। घुरिये का मत है कि आदिम जातियाँ पिछड़े हिन्दू थे अतः इनकी सभी सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान हिन्दू समाज के साथ आत्मसात में ही निहित है।

देसाई, डॉ० धुरिये से मत भिन्नता रखते हैं और वे जनजातियों का आत्मसात हिन्दू समाज के स्थान पर राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में चाहते हैं। निर्मल कुमार बोस जनजातियों का आत्मसात किसी धार्मिक समूह के स्थान पर नवीन भारतीय समाज में चाहते हैं। आधुनिक भारतीय समाज के मूल आधार धर्म-निरपेक्षता, प्रजातन्त्र, समाजवाद और वैज्ञानिकता है।

सामाजिक जेण्डर (लिंग) से क्या आशय है ?

डॉ० दुबे का मत है कि जनजातियों की समस्याओं के समाधान खोजने के जो अब तक प्रयत्न हुए हैं, वे अधिकांशतः राजनीतिक अथवा भावुकतापूर्ण ही रहे हैं। आदिवासियों की समस्याओं के हल के लिए डॉ० दुबे निम्नांकित सुझाव देते हैं:

  1. वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा आदिवासियों के सामाजिक संगठन और मूल्य के ज्ञान की
  2. विभिन्न प्राविधिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के परातलों पर उनकी समस्याओं उपलब्धि । का सूक्ष्य अध्ययन ।
  3. आदिवासी जीवन में एकीकरण की शक्तियों और कारकों का अध्ययन।
  4. संस्कृति के सहज परिवर्तनशील और परिवर्तन विरोधी पक्षों का विश्लेषण।
  5. संस्कृति के विभिन्न पक्ष के सम्बन्ध सूत्रों और अन्तरावलम्बन का अध्ययन।
  6. आदिवासी क्षेत्रों में कार्य करने वाले शासकों तथा अर्द्ध-शासकीय और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आदिवासी जीवन और संस्कृति से परिचित कराने और इन समूहों में किए जाने वाले कार्य को समझने हेतु विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था ।
  7. विचारपूर्वक ऐसी विकास योजनाओं का निर्माण जो आदिवासी समूह की आवश्यकताओं का क्षेत्रीय और राष्ट्रीय आवश्यकताओं से समन्वय कर सकें।
  8. इन योजनाओं द्वारा जनित प्रवृत्तियों की गतिविधि और प्रभावों का अध्ययन तथा उनके हानिकारक तत्वों के निराकरण का प्रयत्न ।

(2) स्वयं सेवी संस्थाओं के प्रयत्न- भारत में कई संस्थाएँ उपलब्ध हुई हैं जिनमें से एक स्वयं सेवी संस्था है। भारत में बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं ने भी आदिवासियों की इस गिरी हुई हालत पर अपनी चिन्ता को व्यक्त किया है और उनकी समस्या के समाधान के लिए उन्होंने अपनी रीतियों और नीतियों के अनुसार प्रयत्न किया है। इन संस्थाओं में भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, नयी दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश आदिम जाति सेवक संघ, हैदराबाद रामकृष्ण मिशन, केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड, ठक्कर बापा आश्रम, भारतीय रेडक्रॉस एवं ईसाई मिशनरियों, आदि प्रमुख हैं। महात्मा गाँधी अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने हेतु देश के गरीब और पिछड़े वर्ग का सहयोग प्राप्त करना और उनकी गिरी हुई दशा सुधारना चाहते थे, अतः उन्होंने भी उनकी आर्थिक दशा सुधारने एवं उन्हें सामाजिक व राजनीतिक न्याय दिलाने के लिए भरसक प्रयत्न किए। ज्योति रॉय फूले तथा ठक्कर बापा ने भी देश के पिछड़े वर्ग की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। ठक्कर बापा जनजातियों को आधुनिक सुविधाएँ दिलाकर उन्हें गरीबी, अज्ञानता, बीमारी एवं कुप्रशासन से मुक्ति दिलाना चाहते थे। इस प्रकार समाजसेवी संस्थाओं का उद्देश्य जनजातियों का अस्तित्व बनाए रखकर उन्हें अभावों से मुक्ति दिलाना था।

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