किसान आन्दोलन का अर्थ-किसान आन्दोलन वस्तुतः खेतिहर मजदूरों व किसानों से सम्बन्धित आन्दोलन है जो उनके शोषण, पतन एवं आर्थिक परतन्त्रता के खिलाफ उत्पन्न होता किसान तथा उससे सम्बन्धित अन्य समूहों का भी सहभाग इन आन्दोलनों का एक आवश्यक अंग हो सकता है। खेती करने वाला किसान अर्द्ध पर मजदूरी करने वाला मजदूर, केवल हल जोतेने वाला हलवाहा, धान रोपने वाली ग्रामीण औरतें तथा अनाज से भूसा अलग करने वाला सामान्य श्रमिक भी इन आन्दोलनों का समान सहभागी होता है।
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किसान आन्दोलन की परिभाषा
प्रो. आर. सिहं- “हिंसा अथवा हिंसा का भय दिखाकर, अन्यथा कृषि कार्यों से निरपेक्ष भाव दिखाकर जब खेतिहर मजदूर, भस्वामियों अथवा सम्बन्धित सरकार को थकाने का प्रयास करता है, कृषि आन्दोलन जन्म लेते हैं।”
प्रो. आर. सिहं
पी. सुराना– “किसान आन्दोलन ऐसे आन्दोलनों की ओर लक्ष्य करते हैं जिनका मूलाधार कृशि की आवश्यकताओं से सम्बन्धित होता है, जो मूलतः अपने सत्तापरक स्वामियों के अवरोध से मुक्त होने के लिये किये जाते हैं।”
पी. सुराना
राम विचार पाण्डेय “कोई भी आन्दोलन किसान आन्दोलन बन सकता है, बशकों उसका मूल उद्देश्य कृषकों के अधिकार की लड़ाई हो, चाहे वह कृषकों द्वारा गठित हो अथवा अन्य समूहों द्वारा।”
राम विचार पाण्डेय
डॉ. तरुण मजूमदार “कृषि कार्यों से सम्बन्धित प्रत्येग वर्ग के उत्थान तथा शोषण मुक्ति के लिये किये गये साहसी प्रयासों को किसानआन्दोलन की श्रेणी में रखा जा सकता है। “
डॉ. तरुण मजूमदार
किसान आन्दोलन के कारण
अंग्रेजी काल में किसान असन्तोष (Peasant’s Dissatisfaction During British Period)- अंग्रेजी शासन काल में अनेक किसान आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तीन प्रकार के भूमि सम्बन्धों के आधार पर बनती है। ये भूमि सम्बन्ध (i) जमींदरी, (ii) रैयतबाड़ी, तथा (iii) महालबाड़ी है। जो वास्तविक किसान उत्पादक है सरकार उनसे अप्रत्यक्ष रूप से अपने कर्मचारी या कारिंदों के द्वारा लगान वसूलती थी। इस प्रक्रिया में जमींदारों द्वारा किसानों का आर्थिक शोषण जैसे कम मजदूरी में अधिक काम लेना तथा बेगारी, आदि था। गैर आर्थिक शोषण, मारना-पीटना और अत्याचार करना था। इन कारणों से किसानों में असंतोष बढ़ा और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संगठित होकर उन्होंने संघर्ष किया। कुछ क्षेत्रों में यह संघर्ष जमींदार, जागीरदार, तालुकेदार के खिलाफ और अन्य क्षेत्रों में सरकारी कर्मचारी एवं कारिंदों के खिलाफ राष्ट्रीय आन्दोलन हुए।
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कृषक संगठनों में वृद्धि (Increase in Peasant Organizaion) – 1919 के असहयोग आन्दोलन के बाद भारतीय संरचना में भी संगठनात्मक चेतना आयी है। 1932 में आंध्र प्रदेश में रैयत संघ का गठन हुआ। 1926-27 के मध्य बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब में किसान संघ का गठन किया गया। काँग्रेस के सहयोग के साथ-साथ किसान आन्दोलन और किसान संघ का विकास होता गया। 1927 में बिहार किसान सभा का गठन किया गया। 1936 में लखनऊ में सम्पूर्ण भारतीय किसान कांग्रेस का संगठन किया गया। 1937 में काँग्रेस से अलग होकर किसान संगठन ने अपना अलग अस्तित्व स्थापित किया। कृषक संगठन की वृद्धि किसान आन्दोलन का एक कारण रही।
विभिन्न क्षेत्रों में उगायी जाने वाली फसल (Growing Crop in Various Areas)- विभिन्न क्षेत्रों में उगायी जाने वाली फसलें भी आन्दोलन का प्रमुख कारण बनीं। चम्पारन जिले में महात्मा गाँधी द्वारा चलाया गया आन्दोलन नील के किसानों के लिए, तेभागा आन्दोलन धान की समस्याओं से सम्बन्धित था। नक्सलवादी आन्दोलन (उत्तर बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश) भी यहाँ की प्रमुख फसल जूट की समस्याओं से सम्बन्धित था। अतः विभिन्न क्षेत्रों में उगायी जाने वाली फसलें भी आन्दोलन का प्रमुख कारण रहीं।
भूमि का असमान वितरण (Ineqauitable Distribution of Land)- भारत में एक ओर तो जनसंख्या का भार भूमि पर बढ़ता जा रहा है प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है, दूसरी और कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण है। भमि सुधार प्रणाली (Land Reform System) के लागू होने के बाद भी 10 प्रतिशत धनी किसानों पास कुल भूमि का 30 प्रतिशत भाग है। देश में मध्य किसानों के पास 50 प्रतिशत है। इस प्रकार से निम्न किसान के पास कुछ कृषि भूमि का 20 प्रतिशत है, जबकि इनकी संख्या काफी अधिक है।
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कृषकों में जागरूकता (Awareness of Peasant)- स्वतंत्रता के बाद से भारतीय कृषकों में कृषि संगठनों में वृद्धि, वर्ग चेतना में वृद्धि, शिक्षा के प्रसार, बढ़ते हुए असंतोष के कारण कृषकों में काफी जागरूकता आई है जिससे कृषि आन्दोलनों को प्रोत्साहन मिला है।
कृषकों की शोचनीय दशाएँ (Deplorable Conditions of Peasants) – कृषकों को खेती के क्षेत्र में सिंचाई की कमी, दामों की लूट, ब्याज की बढ़ती दर बढ़ती महँगाई, जनसंख्या में वृद्धि, आदि के कारण इनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी और किसानों का निचला तबका (वर्ग), सीमान्त, भूमिहीन एवं बन्धुआ मजदूर (Bounded Labour) बनने के लिए बाध्य होता गया। अर्थशास्त्री वन्द्योपाध्याय के अनुसार 1970-80 के दशक में 1 करोड़ 60लाख किसान अपनी जमीन से हाथ धो बैठे।
कृषकों को फसल का उचित मूल्य नहीं मिलना (Non-Payment of Right Price of Crops of Peasants)- दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक दिलीप स्वामी तथा कोलकाता के गुलारी ने अपने अध्ययन के दौरान 1970-80 के बीच किसानों के शोषण का मूल्य 400 सौ हजार करोड़ आँकां जबकि अध्ययन में केवल मुख्य कृषि पैदावार को लिया गया। दामों की इस लूट के कारण किसानों में असन्तोष की भावना बढ़ी तथा आन्दोलन को ही इस समस्या का समाधान माना गया।
वर्तमान समय में शोषण का भय (Fear of Exploitation in Present Times)- सन् 1985 के आरम्भ में सत्तरूढ़ दल ने इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाने का मुख्य रास्ता सघन पूँजी वाले अत्याधुनिक उद्योगों को लगाया जाना माना है। अतः उत्पन्न पूँजी को बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में भारी अनुपात में लगाया गया जिससे खेती की उपज के फायदों का सन्तुलन बिगड़ना गया और किसानों के नेतृत्व ने यह अनुभव किया कि यदि देश ने यह रास्ता अपनाया तो न केवल छोटे-छोटे उद्योग, खेती तथा अन्य व्यवसाय की दुर्दशा होगी, बल्कि बेकारी भी बढ़ेगी एवं देश का इन रास्तों में विकास करना अत्यधिक कठिन हो जायेगा। गाँधीवादी एवं समाजवादी विचारक ही नहीं बल्कि सच्चे लोकतंत्रवादी एवं मानववादी सभी इसकी स्थिति से अवगत है। इसलिए आन्दोलन की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित हुआ।
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वर्ग-चेतना में वृद्धि (Increae in Class Consciousness)- स्वतंत्रता के समय कृषकों ने सहयोग दिया। जहाँ कुछ किसान भूमिधर बने वहीं कुछ किसान खेतिहर मजदूर के रूप में परिवर्तित हो गये। आर्थिक नियोजन (Economic Planning) में जो खेती का विकास हुआ तो लोकतंत्र में संख्या बल का एहसास हुआ। इससे लोगों की अलग-अलग पहचान बनी और वर्ग चेतना का विकास हुआ, जिसमें पिछड़े वर्गों की जातियों की शिक्षा, प्रशासनिक सेवाओं और विधान पालिकाओं में संरक्षण का मामला प्रकाश में आया। वर्ग चेतना भी कृषकों को अधिकारों की प्राप्ति के लिए आंदोलन करने की प्रेरणा देती है।
यंत्रीकरण (Mechanization)- भारत एक श्रम प्रधान देश है। यहाँ पहले से ही बेरोजगारी को समस्या रही है। कृषि का यंत्रीकरण किये जाने से देश में लाखों खेतिहर मजदूर बेकार हो गये। अतः कृषि में यन्त्रीकरण के कारण कृषकों के असन्तोष में वृद्धि हुई।
हरित क्रांति से उत्पन्न असंतोष (Dissatisfaction Due to Green Revolution)- हरित क्रांति को केवल कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया। जैसे पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु के कुछ भू-भाग में, और गिनी-चुनी फसलें गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी फसलों को ही लिया गयां अतः इस क्रांति से कुछ विशेष फसलों को लाभ मिला। अन्य क्षेत्रों एवं फसलों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया जिससे किसानों के असंतोष में वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त नयी कृषि जिसमें ट्रेक्टर, रासायनिक खाद, पंजीकृत साधनों की आवश्यकता होती है, जिसमें काफी पूँजी की आवश्यकता होती है। जिससे छोटे किसानों में धीरे-धीरे असंतोष फैल गया जो आन्दोलन का प्रमुख कारण बना।
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