उपन्यास एवं कहानी एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न हैं। उपन्यास में जीवन की समस्याओं की व्याख्या और उनका समाधान मिलता है। कहानी में ये बाते नहीं पाई जाती हैं। कहानी एक प्रश्न को उठाती है किन्तु उसका उत्तर पूर्णरूप से नहीं देती। ‘व्याख्या’ उपन्यास का प्राण है जबकि ‘संकेत’ और ‘गूँज’ कहानी की जीवन-श्वासें है। उपन्यास को आप नक्षत्र खचित आकाश कहें तो कहानी को सप्तरंगी इन्द्रधनुष मान लें। उपन्यास में अटूट कथारस का होना आवश्यक है, किन्तु कहानी में कथानक का महत्व उतना नहीं रहता है। कहानी में किसी भाव का चित्रण इतनी विशदता से किया जा सकता है कि उसमें कथानक गौणरूप धारण कर ले। उपन्यास में एक से अधिक पात्रों का अनेक परिस्थितियों में चित्रण रहता है। उपन्यास सांगोपांग जीवन का सम्पूर्ण विशद और व्यापक दर्शन है, किन्तु कहानी जीवन की एक झाँकी है, मार्मिक एवं व्यंजनापूर्ण ऐसी झाँकी जो हृदय को झकझोर देती है। मथ कर हिला देती है।
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कहानी का उपन्यास की अपेक्षा एकांकी नाटक से अधिक सामीप्य है। क्षिप्रता और लाघव दोनों ही इनके सामान्य गुण हैं। दोनों अपनी सफलता के लिए व्याख्या का पक्ष त्याग कर संकेत का मार्ग ग्रहण करते हैं। नाटक, उपन्यास तथा महाकाव्यों के कथानकों में प्रस्तावना, संघर्ष, चरम स्थिति आदि अवस्थायें होती हैं, किन्तु कहानी की संकुचित सीमा में उक्त परिस्थितियाँ स्पष्ट नहीं हो पाती, उसमें संघर्ष और चरम “सीमा भर स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं। कहानी की उपेक्षा उपन्यास का आकार प्रायः अधिक होता है। उसमें हम विस्तारपूर्वक कई चरित्रों, घटनाओं आदि का समावेश कर सकते हैं। कहानी की एक विशेष सीमा होती है। वह पूरे जीवन की व्याख्या न कर उसकी एक झाँकी मात्र का परिचय देती है। कहानी में उपकथानक के लिए स्थान नहीं रहता है। कहानीकार अपने पाठक को अन्तिम संवेदना तक शीघ्रातिशीघ्र ले जाता है। कहानी की एकतव्यता ही उसका जीवनरस है और वही उसे उपन्यास से पृथक करती है। यही कहानी की लोकप्रियता के प्रमुख कारण है।
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