शिक्षा का विशेष महत्व होने के कारण उपनयन संस्कार का अत्यधिक महत्व था।उपनयन संस्कार के पश्चात् ही बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था एवं शिक्षा ग्रहण करने हेतु गुरु के समीप जाता था। इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है। उपनयन संस्कार की आयु ब्राह्मण के लिए आठ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ग्यारह वर्ष तथा वैश्य के लिए उपनयन की उम्र बारह वर्ष मानी जाती थी। यह व्यवस्था थी कि व्यक्ति का उपनयन संस्कार 16 वर्ष से अधिक की आयु में नहीं किया जा सकता था।
शिक्षा इस संस्कार का पहला प्रमुख उद्देश्य था। उपनयन के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन क्षेत्र में प्रवेश करने के योग्य बनता था। संस्कार के लिए अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग प्रकार की ऋतुओं का चुनाव किया जाता था। ब्राह्मण का उपनयन संस्कार बसन्त में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का उपनयन संस्कार पतझड़ ऋतु में किया जाता था।
गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों में सर्वश्रेष्ठ है।” टिप्पणी कीजिए।
उपनयन के समय बालक अन्तिम बार अपनी माँ के साथ थाली में भोजन करता था, यह इसका प्रतीक होता था कि अब उसका अनियमित जीवन समाप्त हो चुका है तथा उसे अब नियमित जीवन व्यतीत करना चाहिए। संस्कार के समय विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं की उपासना की जाती थी।
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