आर्थिक व्यवस्था का रूपान्तरण और उसमें महिलाओं की भूमिका
समय में परिवर्तन के साथ स्त्री अर्थोपार्जन भी करने लगी हैं। अब स्त्री भी पड़ने लगी है, उसकी साक्षरता दर बढ़ रही है, उसे सम्पत्ति में अधिकार दिए गए हैं, वह कार्योजित हो रही है, यह ऐसी सभी जगहों पर कार्य कर रही है जिसे सिर्फ पुरुष के लिए ही सुरक्षित माना जाता था। अब चाहे वह संसद में भागीदारी हो, राजनेता हो, मुख्यमन्त्री हो, प्रधानमन्त्री हो, पायलट हो या अन्य दायित्व, वह उसे बखूबी निभा रही है। स्त्री ने यह तो एहसास करा ही दिया है कि यदि उसकी क्षमता का सही उपयोग किया जाए तथा उसे मौका दिया जाए तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है। एलीनॉर मार्क्स और एडवर्ड एवेलिंग ने स्त्रियों के सम्बन्ध में ठीक ही कहा “हमारे जटिल समाज में हर चीज की तरह स्त्रियों की हैसियत भी एक आर्थिक बुनियाद पर “टिकी होती है।”
आर्थिक व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी
जैविक आधार और सामाजिक संरचना को विशिष्टता के साथ ही आर्थिक व्यवस्था भी स्त्री के यथार्थ को प्रभावित करती है। अर्थव्यवस्था में भागीदारी एवं सम्पत्ति पर अधिकार व्यक्ति को प्रभुत्व सम्पन्नता देता है लेकिन उपलब्ध व्यवस्था स्त्री की अर्थ में भागीदारी एवं उसकी सम्भावना को न्यूनतम करती है।
‘द जर्मन आइडियोलॉजी‘ में स्वीकार करते हैं कि “श्रम और जायदाद के गुण और मांग के लिहाज से असमान वितरण के पहले अंकुर परिवार में फूटे जहां औरतें और बच्चे पुरुष के गुलामों की तरह हैं।” स्त्री-पुरुषों के बीच का श्रम विभाजन स्त्री विरोधी एवं पुरुष की सत्ता को मजबूत करता है। इस परिस्थिति के लिए ये निजी स्वामित्व को जवाबदेही मानते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, “पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हजार वर्ष लगेंगे। दुनिया की 98 प्रतिशत पूंजी पर पुरुषों का कब्जा है।” इस दृष्टि से दुनिया की सारी पूँजी’ मना की पूंजी है। मार्क्स का विचार है कि “परिवार की पूँजी यानी निजी फायदे के आधार पर खड़ा होना है। सर्वहारा वर्ग में जहाँ मजदूरों के बच्चे तिजारत का मामूली सामान और श्रम के औजार बनते जा रहे हैं, वहीं पूंजीपति वर्ग में औरतों की स्थिति उत्पादन के एक औजार के सिवा और कुछ नहीं।”
परिवार का मुखिया परिवार के सदस्यों का विशुद्ध रूप से महज इस्तेमाल करता है और उनका शोषण करता है। आधुनिक परिवार में मौजूद दासता के जीवाणु आगे चलकर समाज और राजसत्ता तक विकसित होते हैं। इसलिए यदि लैंगिक बराबरी की शुरूआत करनी है तो उसे परिवार से शुरू करना होगा क्योंकि परिवार पूँजीवाद के छोटे मॉडल के रूप में कार्य करता है।
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मैक्सिको विश्व अधिवेशन (1985) के अनुसार, “महिलाओं व पुरुषों में समानता का अर्थ है दोनों के लिए समानता के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना। इन दोनों के बीच गरिमा और योग्यता की प्राणिमात्र के रूप में उपलब्धियों और साथ ही साथ दोनों के अधिकारों के उपयोग में व जिम्मेदारियों में समानता ।”
इस अधिवेशन में विश्व की महिलाओं की स्थिति पर सर्वेक्षण किया गया और निम्नलिखित बातों को प्रकाश में लाया गया –
- विश्व लिंग अनुपातों में गिरावट आई है अर्थात् महिलाओं की संख्या में कमी हुई है।
- शिशुओं की मृत्युदर में वृद्धि हुई है।
- कुपोषण व भुखमरी से पीड़ित महिलाओं में बच्चों के जन्म की दर अधिक तथा इससे माँ व बच्चे के स्वास्थ पर दुष्प्रभाव पड़े हैं।
- माँ व बालिकाओं के स्वास्थ्य की अवहेलना की गई है।
- समाज में महिलाओं को निम्नस्तर दिए जाने से महिलाओं की आयु में कमी व मृत्युदर में वृद्धि हुई है।
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